साहित्य में चित्रित वृद्धों के प्रवासी जीवन की त्रासदी - सीमा दास
साहित्य में चित्रित वृद्धों के प्रवासी जीवन की त्रासदी
सीमा दास
संपर्क-7510211834
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परन्तु वर्तमान समय में विद्माबना यह है कि जिस नींव की वजह से परिवार की संकल्पना की जाती है उसी से आज का युवा वर्ग हेय यानी नफ़रत करने लगा है | उनसे बात करने से कतराते हैं | यहाँ तक कि उन्हें अपना बोझ समझ कर या तो अपने से हमेसा के लिए अलग कर देते हैं या स्वयं ही बेगाना बनाकर अकेला छोड़कर निकल पड़ते हैं | जिसके परिणामस्वरूप इन वृद्ध माता-पिता को प्रवासी जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं | प्रवासी का अर्थ केवल देश के बाहर जाकर बस जाने वाले व्यक्ति को प्रवासी नहीं कहा जाता बल्कि देश में रख भी अपने मूल स्थान से हट कर या स्वयं जाकर निवास करने की प्रक्रिया को प्रवास कहा जा सकता है |


आज एक ओर जहाँ स्त्री, दलित, आदिवासी विमर्श आदि की गूंज चारों ओर सुनाई पड़ रही है | परन्तु बृद्ध की समस्याओं की गूंज उस रूप में उभरता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है जिस रूप में होना चाहिए | जबकि एक माता-पिता अपने बच्चों से बस यही चाहत रखता है कि बुढ़ापे में उसका बच्चा उसके साथ रहे | प्राचीनकाल से ही यह माना जाता रहा है कि
“यद्दपि पोष मातरं पुत्र: प्रभुदितों ध्यान |
इतदगे अन्तणो भवाम्यहतौ पितरौ ममां ||”3
अर्थात् “जिन माता-पिता ने अपने अथक प्रयत्नों से पाल-पोस कर मुझे बड़ा किया है, अब मेरे बड़े होने पर जन वे अशक्त हो गए हैं तो वे ‘जनक-जननी’ किसी भी प्रकार से पीड़ित न हों, इस हेतु मैं सेवा, सत्कार से उन्हें संतुष्ट कर ऋण के भर से मुक्ति कर रहा हूँ |” यजुर्वेद में यह दिया गया श्लोक, हमें अपने माता-पिता और अपने बुजुर्गों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने की शिक्षा देता है और बुजुर्गों का सम्मान करने का मार्ग प्रशस्त करता है |

आज हमारे समाज में वृद्ध लोगों को दोयम दर्जें के व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है| देश में तेजी से सामाजिक परिवर्तनों का यह दौर चालू है और इस कारण वृद्धों की समस्याएँ विकराल रूप धारण कर रही है | इसका मुख्य कारण देश में उत्पादन एवं मृत्यु दर में कमी आना या मृत्यु दर का घटना | जबकि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या की गतिशीलता से हैं | विगत दशकों में स्वास्थ सुविधाओं में गंभीर बिमारियों के कारण मृत्यु दर में गिरावट आई है | साथ ही वृद्धों की जनसंख्या में वृद्धि पायी गई है | “विश्व स्तर पर 7.1 प्रतिशत वृद्धों की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है जबकि 55 वर्ष आयु वाले वृद्धों की जनसंख्या में 2.2 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है |”4 देश में बहुत ही जल्द यह विषमता आने वाली है कि वृद्धजन, जो कि जनसंख्या का अनुत्पादन वर्ग है, वह शीघ्र ही उत्पादन वर्ग से बड़ा होने वाला है |
व्यक्ति का यह अकेलापन शारीरिक एवं मानसिक रूप से उसे कमजोर बना देती है | जिसके परिणामस्वरूप उसमें चिचिड़ापण उत्पन्न हो जाता है | जिसके कारण परिवार में अच्छे संबंध नहीं बने रह पाते | “वृद्धावस्था में मानसिक स्थिति को भावनात्मक ग्रंथि प्रभावित करने लगती है जिसके कारण हीनता की भावना एवं असहायता जैसे अलग-अलग लक्षण देखे जा सकते हैं, जिसमें व्यक्ति को किसी न किसी मनोग्रंथि का शिकार हो सकने का खतरा रहता है | इस तरह से कई मनोवैज्ञानिक समस्याएँ हो सकती है- विचारधारा, पसंद, दृष्टिकोण इत्यादि में स्थिरता आ जाने से भी समस्याएँ उत्पन्न होती है |”6 यह समस्याएँ एवं तनाव की स्थिति तब उभर कर सामने आती है जब नैतिकता, जीवन-मूल्य, आकांक्षाएँ, उपेक्षाएँ मेल नहीं खाती तभी यह अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है |
सच्चाई यह है कि वृद्धावस्था जीवन की संध्या है यानी डूबता हुए सूर्य के समान है और यही जीवन का सबसे अनिवार्य क्रम है | क्योंकि धरती पर जिसने भी जन्म लिया है उसे एक न एक दिन वृद्ध होना ही है | निराला के अनुसार-
“ मैं अकेला हूँ,
देखता हूँ आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला |”7

“अब वे वासर बीत गए,
मन तो भरा-भरा है लेकिन,
तन के सब रस रीत गए,
चमक छोड़ चौमासे बीत,
कंवल छोड़कर शीत गए,
लेकर मधु की ऊष्मा सारी,
मेरे मन के पीट गए,
अब तो कावल गूंज बची है,
जीवन के सब गीत गए,
इस राम जाने जीवन में,
हम हारे या जीत गए |”8
समाज में वृद्धों के समक्ष उभर कर जो समस्याएँ आ रही है, वह है- शारीरिक एवं मानसिक तनाव, परिवार से अलगाव, बेगानापन का भाव, आर्थिक असमर्थता, दो पीढ़ियों के बीच मानसिक टकराहट इत्यादि | यद्दपि यह समस्या उतनी ही गंभीर है जितनी वृद्धों के समाज में समन्वय की समस्या है | वृद्धों के समाज में समन्वय न होने के मुख्य दो कारण है- पहला यह कि उम्र बढ़ने से व्यक्तिगत परिवर्तन एवं दूसरा यह कि वर्त्तमान औद्योगिक समाज का अपने वृद्धों से व्यवहार का तरीका | जैसे-जैसे व्यक्ति वृद्ध होता जाता है, समाज में उसका स्थान एवं रोल या यूँ कहे कि उसकी भूमिका बदलने लगता है |

‘बुढ़वा मंगल’ कहानी में रवीन्द्र कालिया ने एकाकीपन और अलगावपन का ताना-बाना बुना है | इसमें अपने बेटे के बुलाने पे जब वृद्ध पिता ट्रेन के ए.सी. डब्बे से बैंगलोर जा रहा होता है तब उस वृद्ध को अपनी जीवन साथी की याद आती है- “उसे अब लगा कि अब वह कोल्हू के बैल की तरह जीवन बिता रहा है | इस आराम देह गाड़ी में उसे अपनी बुढ़िया की बड़ी तेज़ याद आई | वह साथ में होती तो कितना खुश होती |”9 वृद्ध मन की यह अकुलाहट अकेलेपन में अपनी जीवन संगनी के साथ अपने मनोदशा को अभिव्यक्त करने के लिए खोजता फिरता है ताकि अपनी मन की बात बता सके | परन्तु अपने सुख-दुःख आदि की भरपाई अपनी संगनी के साथ न कर पाने के कारण यह एकांत मन व्याकुल हो उठता है |


इन सभी रचनाओं के सहारे वृद्ध जीवन और आज के पीढ़ी के बदलते संबंधों के सहारे सांस्कृतिक परिवर्तन को आसानी से दर्शाया गया है | साथ ही इसी अलगाववादी प्रवृति के कारण वृद्ध माता-पिता आज प्रवास में जीवन बिताने के लिए विवश है |


‘गिलीगड्डू’ उपन्यास में वृद्ध जसवंत सिंह अपने पोते के जन्मदिन पे पार्टी देना चाहते हैं और भावनात्मक तौर से बच्चे से जुड़ने की कोशिश करते हैं | परन्तु मलय(पुत्र) द्वारा दिया गया अपने पिता को करारा जवाब उसके दिल को ठेस पहुँचाता है, “उसका यह कार्यक्रम उसके दोस्तों के साथ है |
घर वाले इसमें शामिल नहीं होंगे | मम्मी को वैसे भी जन्मदिन मनाने में झंझट होता है....न, न दादू | हम अपने से बड़े किसी को भी नहीं ले जायेंगे वरना पार्टी बोरिंग हो जाएगी |”12 वृद्ध जीवन की एकमात्र यही आश होती है कि वृद्धावस्था में उसके अपने उसके साथ हो परन्तु वही अपने अपनी नई पीढ़ी के आगे उन्हें वृद्धा जान कर अपने किसी भी कार्य में शामिल करने से हिचकिचाते हैं जिसके चलते आज समस्त वृद्धजनों को प्रवास में रहकर अकेलापन का शिकार होना पड़ता है |
घर वाले इसमें शामिल नहीं होंगे | मम्मी को वैसे भी जन्मदिन मनाने में झंझट होता है....न, न दादू | हम अपने से बड़े किसी को भी नहीं ले जायेंगे वरना पार्टी बोरिंग हो जाएगी |”12 वृद्ध जीवन की एकमात्र यही आश होती है कि वृद्धावस्था में उसके अपने उसके साथ हो परन्तु वही अपने अपनी नई पीढ़ी के आगे उन्हें वृद्धा जान कर अपने किसी भी कार्य में शामिल करने से हिचकिचाते हैं जिसके चलते आज समस्त वृद्धजनों को प्रवास में रहकर अकेलापन का शिकार होना पड़ता है |
‘रात का रिपोर्टर’ उपन्यास में निर्मल वर्मा ने वृद्ध जीवन के आतंकित मन से वाकिब करवाया है | भय, आतंक के कारण ही ‘रात का रिपोर्टर’ के नायक रिशी स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है | जीवन का यह अकेलापन भय का कारण होता है | इसी मनोदशा को उजागर करते हुए भय का चित्रण किया है- “वह लाइब्ररी की तरफ चलने लगा | कोई उसका पीछा नहीं कर रहा था, सिवाय उसके डर के, जो वह सज्जन व्यक्ति उसके पास छोड़ गये थे | सैतीस साल की उम्र में उसने तहर-तरह के डर भोगे थे , लेकिन वे उसके भीतर थे, उसे टोहने के लिए उसी नंगी सड़क पर पीछे मुड़-मुड़ कर देखना नहीं पड़ता था | किन्तु यह एक नए किस्म का डर था |”13 वृद्धों के समक्ष सबसे बड़ी त्रासदी है- अकेले जीवन-यापन करना |

जब सिद्धार्थ को फ़र्ज़ की विधि के लिए बुलाया जाता है तो बहाने बनता है कि उसके घर तक आने में हफ्ते भर से अधिक समय लगेगा | अत: वह अपनी माँ को समझाते हुए कहता है- “हम सब तो आज लुट गए ममा | लोग बता रहें हैं मेरे आने तक डैडी को रखा नहीं जा सकता | आप ऐसा कीजिए. इस काम के लिए किसी को बेटा बनाकर दाह-सत्कार (क्रिया-कर्म) करवाइए | मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा |”14 यह है आज के युवा वर्ग की सोच एवं अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य-बोध जिसे देख सोचने पर विवश होना स्वाभाविक है |
भूमंडलीकरण के जंजाल में पड़ने वाले आदमियों में अधिकांश हर प्रकार की सामाजिक संबंधों को अनावश्यक और अनर्थ समझने वाले रिश्तें हैं | जो कि पश्चिम देशों के व्यापार ने लोगों के मन मस्तिष्क से उपज कर आया है | भूमंडलीकरण के पीछे यहाँ के युवा आँखें मूंदकर, तन-मन-धन देकर एवं अपनी संस्कृतियों को भूलकर यहाँ तक कि अपने माता-पिता की भी परवाह किये बिना आज का युवा वर्ग ‘दौड़’ लगा रही है |
‘हमारा शहर उस बरस’ उपन्यास में गीतांजलि श्री नें युवा पीड़ी के खोखलेपन को बखूबी उभारा है | दद्दू धड़ल्ले से युवा वर्ग की कमजोरियों पर कटाक्ष करते हैं | जब श्रुति दद्दू से समाज और संस्कृति के नाम पर गोष्ठी की बात करती है तो दद्दू निःसंकोच युवा वर्ग के खोखलेपन का उपहास करते हैं- “बंडल होगा.....पैसा बहेगा, दारू बहेगी, कागज पर लिखा जायेगा, धड़ाधड़ लेख छपेंगे, नाम होगा |”15 समकालीन युवा पीढ़ी आज पूरी तरह से बाज़ार में तब्दील होता प्रतीत हो रहा है |
‘समय सरगम’ उपन्यास में कृष्णा सोबती ने कामिनी और दयमंती जैसी स्त्रियों के माध्यम से यह दर्शाया है कि उसके पास सब होते हुए भी परिवार से दूर हो गयी है | दयमंती अकेली रहती है और अरण्या से अपने मनोभाव को व्यक्त करते हुए कहती है- “बच्चे साथ रह रहे हैं मेरा घर मेरा किचन चल रहा है |
खर्चा मैं कर रही हूँ और मैं अकेली पड़ी हूँ | बिना इजाज़त के मेरा सामान इधर से उधर करते रहते हैं | पीछे आश्रम गयी तो माधव को धमकाते रहते हैं | बताओं ममा लॉकर की चाभी कहाँ है.....कुछ कहो अरण्या | बच्चों की ऐसी हरकत से मेरा धीरज ख़त्म हो रह है |”16 निश्चित ही अकेलापन तब बोझ बन जाता है जब व्यक्ति अपनों से दूर रहता है | तभी निरंतर अजीबों-गरीब ख्यालात मन-मस्तिष्क पर हाबी होने लगता है | ईशान और अरण्या के माध्यम से लेखिका ने कुछ और वृद्ध जीवन की समस्याओं से मुखरित कराया है | अरण्या का यह जीवन उनके वृद्ध जीवन का भोगा हुआ यथार्थ है | वह कहती भी है- “परिवार की सांझी श्रीसम्पदा और सम्पन्नता में निहित है | आप इस साझेपन के हिस्सेदार हैं तो स्नेह, ममता भी प्रचुर होंगी|”17

समकालीन दौर में बच्चे भी इस प्रवृति से बच नहीं पाए है | पहले एक समय ऐसा था जो आर्थिक तंगी के कारण लोग कमाने खाने के उद्देश्य से विदेश में जाकर बस जाते थे परन्तु आज का यह दौर कमाने-खाने के लिए अकेले ही जाते हैं और वृद्धों, पत्नी, और बच्चों को छोड़ जाते हैं |
वृद्ध को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं- “यूएनपीएफ के आकलन के मुताबित देश के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में कूल मिलकर 20 फीसदी बुजुर्ग अकेले या फिर अपने जीवन साथी के सहारे अपना जीवन काटने को विवश है | तमिलनाडु में यह स्थिति 50 फीसदी से अधिक आ चुकी है जबकि गोवा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल में यह दर काफी ज्यादा है |”18
वृद्ध को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं- “यूएनपीएफ के आकलन के मुताबित देश के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में कूल मिलकर 20 फीसदी बुजुर्ग अकेले या फिर अपने जीवन साथी के सहारे अपना जीवन काटने को विवश है | तमिलनाडु में यह स्थिति 50 फीसदी से अधिक आ चुकी है जबकि गोवा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल में यह दर काफी ज्यादा है |”18
भारतीय कहावत है- पूत कपूत हो सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती अर्थात् पुत्र भले ही कुपात्र हो जाए पर माँ-बाप कभी कुपात्र नहीं होते | मुख्य तौर से देखा गया है कि आज के समय में वृद्ध की समस्या एक सामाजिक समस्या बन गई है | इसके समाधान के लिए परिवार, समाज और सरकार को साझेदारी से काम करने की आवश्यकता है | अत: वृद्धों को वृद्धाश्रम में रख देने मात्र से इसका निपटारा नहीं हो सकता |
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1 डॉ. सुखविंदर बाढ, पंजाबी लोक साहित्य, संस्कृत का आईना, पृष्ठ-82
2 डॉ. मधुकर पांडवी, कहानी निर्मल वर्मा और माधुरी का तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ-45
3 http://www.hindisamay.com
4 डेमोग्राफी इंडिया, अंक-23, पृष्ठ-108
5 चौधरी डी.पाल, ऐजिंग एंड द एजेण्ड, 1992, नई दिल्ली, पृष्ठ-10
6 प्रियदर्शन, संपादक, बड़े बुजुर्ग, पृष्ठ-30
7 kavitakosh.org/kk/मैं_अकेला__सूर्यकांत_त्रिपाठी_ “निराला”
8 kavitakosh.org/kk/अब_वे_वासर_बीत_गए_(कविता)_“मैथिलीशरण गुप्त”
9 प्रियदर्शन, संपादक, बड़े बुजुर्ग, कहानी, पृष्ठ-34
10 शशि भूषण शर्मा, एक बूढ़े की मौत, कहानी, पृष्ठ-57-58
11 डॉ. निमल वर्मा, लालटीन की छत, उपन्यास, पृष्ठ-35
12 चित्रा मुद्गल, गिलिगडु, उपन्यास, पृष्ठ-33
13 डॉ. निर्मल वर्मा, रात का रिपोर्टर, उपन्यास, पृष्ठ-58
14 ममता कालिया, दौड़, उपन्यास, पृष्ठ-65
15 गीतांजलि श्री, हमारा शहर उस बरस, उपन्यास, पृष्ठ-145-146
16 कृष्णा सोबती, समय सरगम, उपन्यास, पृष्ठ-74
17 वहीं, पृष्ठ-74
18 हर्ष मंदर, बोझ नहीं जिम्मेदारी है बुजुर्ग, डॉ. कमलेश सिंह, दैनिक भास्कर, हिंदी समाचार पत्र, पृष्ठ-4
सीमा दास
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ज़बरदस्त सीमा जी
ReplyDeleteआभार सर🙏
Deleteसुंदर लेखन
ReplyDeleteप्रोत्साहन हेतु आपको तहे दिल से धन्यवाद🙏
Deleteबहुत खूब लिखी है आप
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद🙏🙏
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ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन
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Deleteबहुत बहुत आभार
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