साहित्य में चित्रित वृद्धों के प्रवासी जीवन की त्रासदी - सीमा दास






साहित्य में चित्रित वृद्धों के प्रवासी जीवन की त्रासदी 


सीमा दास 
संपर्क-7510211834
इमेल-seema9903617475@gmail.com



व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज बनता है और इस परिवार को संरचनात्मक रूप प्रदान करने वाला व्यक्ति घर के बड़े बुजुर्ग ही हुआ करते हैं जिससे परिवार की उत्पत्ति हुई है | परिवार के बिना समाज की निरंतरता संभव नहीं है | वास्तव में परिवार का आधार  सुनिश्चित यौन संबंध है जो कि संतान उत्पन्न करनें से लेकर उनके पालन-पोषण तक अवस्थित रहता है | डॉ. सुखविंदर बाढ के अनुसार- “व्यक्ति सदैव ही परिवार का सदस्य रहता है और अनेक परिवारों के समूह से समाज बनता है | परिवार के लिए सबसे अति आवश्यक मूल बात है- पति-पत्नी द्वारा संतान की उत्पत्ति |”1

परन्तु वर्तमान समय में विद्माबना यह है कि जिस नींव की वजह से परिवार की संकल्पना की जाती है उसी से आज का युवा वर्ग हेय यानी नफ़रत करने लगा है | उनसे बात करने से कतराते हैं | यहाँ तक कि उन्हें अपना बोझ समझ कर या तो अपने से हमेसा के लिए अलग कर देते हैं या स्वयं ही बेगाना बनाकर अकेला छोड़कर निकल पड़ते हैं | जिसके परिणामस्वरूप इन वृद्ध माता-पिता को प्रवासी जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं | प्रवासी का अर्थ केवल देश के बाहर जाकर बस जाने वाले व्यक्ति को प्रवासी नहीं कहा जाता बल्कि देश में रख भी अपने मूल स्थान से हट कर या स्वयं जाकर निवास करने की प्रक्रिया को प्रवास कहा जा सकता है | 

प्रवास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- प्र+वास | ‘प्र’ का अर्थ- अलग होना या अलग हो जाना | जबकि ‘वास’ का अर्थ- बसना या बस जाना या निवास करना | इस प्रकार प्रवास का मूल अर्थ हुआ- अपने मूल निवास स्थान से दूर जाकर किसी प्रान्त या देश या विदेश में निवास करना | दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘प्रवास’ शब्द में ‘प्र’ शब्द का अर्थ है- अलग या दूसरे जबकि ‘वास’ का अर्थ है- निवास करना | अर्थात् ‘प्रवास’ का शाब्दिक अर्थ हुआ- अपने मूल स्थान से जा किसी अन्य स्थान पर जाकर बस जाना | यहाँ वृद्धों के प्रवासी जीवन से तात्पर्य है- अपने परिवार से अलग होकर प्रवास में जीवन यापन करना | जैसे- वृद्ध आश्रम या अस्पताल में जाकर बस जाना या बसा दिया जाना | अपनों के होते हुए भी उनसे अलग होकर रहना अर्थात् अपनों से दूर हटकर प्रवास करना | वास्तव में देखा जाए तो अपनों के अमानवीय व्यवहार के कारण आज वृद्धों की यह स्थिति है कि वे प्रवास में जीवन यापन करने को विवश है | 

वैश्वीकरण ने हमें इस कदर प्रभावित किया है कि पाश्चात्य जीवन प्रणाली और एकल परिवार को ही सब कुछ मान बैठे हैं | सच्चाई यह है कि जिन बुजुर्गों ने हमें अपनी उंगली पकड़ कर हमारी नन्ही सी हाथों को थामकर हमें चलाना सिखाया उन्ही को आज दुत्कार और नकार रहे हैं | यहाँ तक कि उनके बुढ़ापे में लाठी बनने की अपेक्षा हम उन्हें बोझ समझने लगे हैं | वृद्धों की स्थिति पर ध्यानाकर्षित करते हुए डॉ. मधुकर पांडवी ने ‘कला का जोखिम’ में सच्चाई प्रकट किया है कि “आज की जड़ित, पीड़ित, पराधीन होती हुई सभ्यता सम्पूर्ण रूप से स्वतंत्र रह सके और स्वत्रंत रहकर ही अपने अलगाव का अतिक्रमण कर सके |”2 यही कारण है कि यह सोच हमारी मानसिकता के साथ-साथ हमारे स्वार्थी जीवन प्रणाली को दर्शाने लगा है | जिसके चलते सयुंक्त परिवार विघटित होने लगा है | इसके साथ ही साथ गाँवों से शहर की ओर पलायन बढ़ा, खेत-खलियान के स्थान पर सीमेंट-बालू ने धारण कर लिया और रेत की फसले आज लहलहाने लगी | आज सबसे अधिक यह पाया जा रहा है कि खेत की कमी आ गई और खेत का स्थान आज  कल-कारखानों ने ले लिया |

आज एक ओर जहाँ स्त्री, दलित, आदिवासी विमर्श आदि की गूंज चारों ओर सुनाई पड़ रही है | परन्तु बृद्ध की समस्याओं की गूंज उस रूप में उभरता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है जिस रूप में होना चाहिए | जबकि एक माता-पिता अपने बच्चों से बस यही चाहत रखता है कि बुढ़ापे में उसका बच्चा उसके साथ रहे | प्राचीनकाल से ही यह  माना जाता रहा है कि 
“यद्दपि पोष मातरं पुत्र: प्रभुदितों ध्यान |
इतदगे अन्तणो भवाम्यहतौ पितरौ ममां ||”3  
अर्थात् “जिन माता-पिता ने अपने अथक प्रयत्नों से पाल-पोस कर मुझे बड़ा किया है, अब मेरे बड़े होने पर जन वे अशक्त हो गए हैं तो वे ‘जनक-जननी’ किसी भी प्रकार से पीड़ित न हों, इस हेतु मैं सेवा, सत्कार से उन्हें संतुष्ट कर ऋण के भर से मुक्ति कर रहा हूँ |” यजुर्वेद में यह दिया गया श्लोक, हमें अपने माता-पिता और अपने बुजुर्गों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने की शिक्षा देता है और बुजुर्गों का सम्मान करने का मार्ग प्रशस्त करता है |


आज हमारे समाज में वृद्ध लोगों को दोयम दर्जें के व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है| देश में तेजी से सामाजिक परिवर्तनों का यह दौर चालू है और इस कारण वृद्धों की समस्याएँ विकराल रूप धारण कर रही है | इसका मुख्य कारण देश में उत्पादन एवं मृत्यु दर में कमी आना या मृत्यु दर का घटना | जबकि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या की गतिशीलता से हैं | विगत दशकों में स्वास्थ सुविधाओं में गंभीर बिमारियों के कारण मृत्यु दर में गिरावट आई है | साथ ही वृद्धों की जनसंख्या में वृद्धि पायी गई है | “विश्व स्तर पर 7.1 प्रतिशत वृद्धों की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है जबकि 55 वर्ष आयु वाले वृद्धों की जनसंख्या में 2.2 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है |”4 देश में बहुत ही जल्द यह विषमता आने वाली है कि वृद्धजन, जो कि जनसंख्या का अनुत्पादन वर्ग है, वह शीघ्र ही उत्पादन वर्ग से बड़ा होने वाला है |

विगत पाँच दशकों में यहाँ देखा गया है कि वृद्धों को बेगानापन, अकेलापन आदि की समस्याओं से होकर गुजरना पड़ रहा है | यहाँ तक कि बुजुर्गों को हाशिय पर धकेलने का काम परिलक्षित किया गया है | वर्त्तमान समय में युवा और वृद्धों के बीच संवेदनशीलता की खाई इतनी गहरी हो गई है कि वृद्धों को अनावश्यक तनाव का दंश सहना पड़ रहा है | “वृद्धावस्था प्राय: थकान, कार्यशीलता में कमी, रोगों की प्रतिरोधक क्षमता की कमी से सम्बंधित होता है|”5 यही कारण है कि अक्षमताएँ दैनिक जीवन के कार्य-कलापों को दुर्बल बनाती है |
व्यक्ति का यह अकेलापन शारीरिक एवं मानसिक रूप से उसे कमजोर बना देती है | जिसके परिणामस्वरूप उसमें चिचिड़ापण उत्पन्न हो जाता है | जिसके कारण परिवार में अच्छे संबंध नहीं बने रह पाते | “वृद्धावस्था में मानसिक स्थिति को भावनात्मक ग्रंथि प्रभावित करने लगती है जिसके कारण हीनता की भावना एवं असहायता जैसे अलग-अलग लक्षण देखे जा सकते हैं, जिसमें व्यक्ति को किसी न किसी मनोग्रंथि का शिकार हो सकने का खतरा रहता है | इस तरह से कई मनोवैज्ञानिक समस्याएँ हो सकती है- विचारधारा, पसंद, दृष्टिकोण इत्यादि में स्थिरता आ जाने से भी समस्याएँ उत्पन्न होती है |”6 यह समस्याएँ एवं तनाव की स्थिति तब उभर कर सामने आती है जब नैतिकता, जीवन-मूल्य, आकांक्षाएँ, उपेक्षाएँ मेल नहीं खाती तभी यह अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है |
सच्चाई यह है कि वृद्धावस्था जीवन की संध्या है यानी डूबता हुए सूर्य के समान है और यही जीवन का सबसे अनिवार्य क्रम है | क्योंकि धरती पर जिसने भी जन्म लिया है उसे एक न एक दिन वृद्ध होना ही है | निराला के अनुसार-
“ मैं अकेला हूँ,
देखता हूँ आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला |”7 
मुख्य रूप से वृद्धों की तीन विशेषताएँ है, वह है- अनुभव, धैर्य, प्रदाय | इन सभी विशेषताओं में से सबसे उत्तम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है- प्रदाय या प्रदायनी | बुजुर्ग अपनी संतान को अपना सब कुछ देना चाहते हैं परन्तु अब यह उस युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वह संतान के रूप में कितना ग्रहण करता है | इन सबके बीच ढलती उम्र चिंता का विषय बन गया है | अत: 60 के पार जीवन के बाद की यह ढलती उम्र चाहे आम मानव हो या लेखक सभी के लिए चिंता का विषय बन जाता है | इस संदर्भ में मैथिलीशरण गुप्त ने बहुत ही दुःख के साथ लिखा है-
“अब वे वासर बीत गए, 
मन तो भरा-भरा है लेकिन, 
तन के सब रस रीत गए, 
चमक छोड़ चौमासे बीत,
कंवल छोड़कर शीत गए, 
लेकर मधु की ऊष्मा सारी, 
मेरे मन के पीट गए, 
अब तो कावल गूंज बची है, 
जीवन के सब गीत गए, 
इस राम जाने जीवन में,
हम हारे या जीत गए |”8 

समाज में वृद्धों के समक्ष उभर कर जो समस्याएँ आ रही है, वह है- शारीरिक एवं मानसिक तनाव, परिवार से अलगाव, बेगानापन का भाव, आर्थिक असमर्थता, दो पीढ़ियों के बीच मानसिक टकराहट इत्यादि | यद्दपि यह समस्या उतनी ही गंभीर है जितनी वृद्धों के समाज में समन्वय की समस्या है | वृद्धों के समाज में समन्वय न होने के मुख्य दो कारण है- पहला यह कि उम्र बढ़ने से व्यक्तिगत परिवर्तन एवं दूसरा यह कि वर्त्तमान औद्योगिक समाज का अपने वृद्धों से व्यवहार का तरीका | जैसे-जैसे व्यक्ति वृद्ध होता जाता है, समाज में उसका स्थान एवं रोल या यूँ कहे कि उसकी भूमिका बदलने लगता है |

इस प्रकार, यदि हम साहित्य की बात करे तो अनेक ऐसे लेखक, कहानीकार एवं उपन्यासकार है जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से वृद्ध जीवन की विडम्बनाओं को पाठकों के समक्ष रख दिया है | साथ ही वृद्धों के प्रति दृष्टि एवं अपने परिवार में रहकर भी उनकी क्या स्थिति है आदि बातों से रू-ब-रू करवाया है | साथ ही परिवारिक एवं सामाजिक विषमताओं से भी अवगत करवाया है | अत: वृद्ध जीवन के यथार्थ से अवगत करवाने वाली अनेकों कहानियाँ है जैसे- ‘बीच बहस में’, (निर्मल वर्मा), ‘कोई दूसरा नहीं’, (जाया जादवानी), ‘सोने की चिड़िया,’ (हरी प्रकाश राठी), जबकि ‘बूढी काकी’, (प्रेमचंद), ‘बुढ़वा मंगल’, (रवीन्द्र कालिया), ‘दादी अम्मा’, (कृष्णा सोबती), ‘वापसी’, (उषा प्रियम्बदा)  ‘एक बूढ़े की मौत,’ (शशि भूषण द्विवेदी) आदि कहानियों में वृद्धों की स्थिति को दर्शाया गया है | साथ ही साथ ‘चीफ की दावत’, (भीष्म साहनी), आदि के माध्यम से वृद्धों की समस्याओं को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक दर्शाया गया है |

 ‘बुढ़वा मंगल’ कहानी में रवीन्द्र कालिया ने एकाकीपन और अलगावपन का ताना-बाना बुना है | इसमें अपने बेटे के बुलाने पे जब वृद्ध पिता ट्रेन के ए.सी. डब्बे से बैंगलोर जा रहा  होता है तब उस वृद्ध को अपनी जीवन साथी की याद आती है- “उसे अब लगा कि अब वह कोल्हू के बैल की तरह जीवन बिता रहा है | इस आराम देह गाड़ी में उसे अपनी बुढ़िया की बड़ी तेज़ याद आई | वह साथ में होती तो कितना खुश होती |”9 वृद्ध मन की यह अकुलाहट अकेलेपन में अपनी जीवन संगनी के साथ अपने मनोदशा को अभिव्यक्त करने के लिए खोजता फिरता है ताकि अपनी मन की बात बता सके | परन्तु अपने सुख-दुःख आदि की भरपाई अपनी संगनी के साथ न कर पाने के कारण यह एकांत मन व्याकुल हो उठता है | 

‘एक बूढ़े की मौत’ कहानी में शशि भूषण शर्मा ने वृद्ध व्यक्ति की अकुलाहट को अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयास किया है | इस कहानी का मुख पात्र जानकी बाबू अपने आप को जब भी अकेला महसूस करते तब वे अपने इस सूनापन को मिटने के लिए बाहर घूमने चल जाया करते | कहानीकार उनके माध्यम से उनके विचारों को सहज ही ढंग से बताने का प्रयास किया है- “जानते हो जिंदगी में मृत्यु का आना कितना जरुरी है....उस फूल को देखों और मेरी बातों को ध्यान से सुनों.....|”10 दरअसल यह उनकी मन:स्थिति है जो कि एकांकीपन की अकुलाहट को उभार रहा है | अकेलापन का यह उग्र रूप ही उनके जीवन का कारण बन जाता है |

हिंदी उपन्यास साहित्य विधा भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं हैं | अनेकों उपन्यासकार ने अपनी लेखनी के माध्यम से वृद्धों की समस्याओं को केंद्र में रखकर रचना की है | ‘अंतिम अरण्य’(निर्मल वर्मा), ‘गिलीगड्डू’(चित्रा मुद्गल), ‘दौड़’(ममता कालिया), ‘रेहन पर रग्घू’ (काशीनाथ सिंह), ‘जीने की राह’ (विजय शंकर राही), ‘अपने अपने अजनवी’ (अज्ञेय), ‘समय-सरगम’(कृष्णा सोबती) आदि उपन्यास वृद्ध जीवन पर केन्द्रित उपन्यास है |

इन सभी रचनाओं के सहारे वृद्ध जीवन और आज के पीढ़ी के बदलते संबंधों के सहारे सांस्कृतिक परिवर्तन को आसानी से दर्शाया गया है |  साथ ही इसी अलगाववादी प्रवृति के कारण वृद्ध माता-पिता आज प्रवास में जीवन बिताने के लिए विवश है |

 ‘अंतिम अरण्य’ उपन्यास वृद्धों की स्थिति एवं उसकी नियति से सम्बंधित है | साथ ही साथ व्यक्ति की असीम कल्पनाओं एवं अपेक्षाओं से युक्त है | क्योंकि उम्र का यह पड़ाव अपनों से हद अपनी अगली पीढ़ी से अपेक्षाएँ कर बैठता है परन्तु जब उनकी अपेक्षाओं की कसौटी पर नई पीढ़ी नहीं उतर पाती है तभी यह मानसिक टकराहट की स्थिति उत्पन्न होती है | इसमें ऐसे चरित्र भी है जो अँधेरे की यातना से घिरे इस धरती के अधूरे आत्मखंडित व्यक्तित्व है | जिसकी पूर्णता को कलाकृति अपने सत्य से निर्मित करती है | मेहरा साहब एक ऐसे ही पात्र है जो कि द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों से घिरा हुआ है | वे औरों की तरह कमजोर, खासते हुए चरित्र वाले व्यक्ति नहीं है बल्कि उस सघन यात्री के सामान है जिनके जीवन में स्मृतियाँ उनका पिछा नहीं छोड़ती | इसके बावजूद भी अनकही यातनाओं उन्हें स्पर्श कर ही जाती | अत: मूल रूप से इसमें वृद्ध जीवन की स्मृति, इतिहास, प्रकृति, जीवन, प्रतिक, मिथक, आदि जैसे शांत भाव है |

‘लालटीन की छत’ उपन्यास की पात्रा काया अकेलेपन के कारण डरती भी है और अकेले बड़बड़ाती भी रहती है- “दिनभर का अकेलापन, गुस्सा, हताशा आपस में गूँथ कर एक धुंध का गोला सा बन जाते, जो न इतना कोमल होता कि आसुओं में पिघलकर बाहर आ सके, और न इतना सख्त कि वह उसकी पकड़ में आकर किसी सूझ, किसी समझदारी की सांत्वना में बदल सकें |”11 इसके अतिरिक्त यह टकराहट ही अलगावपन एवं बेगानापन जैसी मन:स्थतियों का कारण बनती है जिसके चलते अंतर्द्वंद्व उत्पन्न होता है और एक समय के पश्चात यह वृद्धा अपने वृद्धावस्था से तंग आकर मृत्यु की राह जोहता-फिरता है |  

‘गिलीगड्डू’ उपन्यास में वृद्ध जसवंत सिंह अपने पोते के जन्मदिन पे पार्टी देना चाहते हैं और भावनात्मक तौर से बच्चे से जुड़ने की कोशिश करते हैं | परन्तु मलय(पुत्र) द्वारा दिया गया अपने पिता को करारा जवाब उसके दिल को ठेस पहुँचाता है, “उसका यह कार्यक्रम उसके दोस्तों के साथ है |
घर वाले इसमें शामिल नहीं होंगे | मम्मी को वैसे भी जन्मदिन मनाने में झंझट होता है....न, न दादू | हम अपने से बड़े किसी को भी नहीं ले जायेंगे वरना पार्टी बोरिंग हो जाएगी |”12 वृद्ध जीवन की एकमात्र यही आश होती है कि वृद्धावस्था में उसके अपने उसके साथ हो परन्तु वही अपने अपनी नई पीढ़ी के आगे उन्हें वृद्धा जान कर अपने किसी भी कार्य में शामिल करने से हिचकिचाते हैं जिसके चलते आज समस्त वृद्धजनों को प्रवास में रहकर अकेलापन का शिकार होना पड़ता है |
‘रात का रिपोर्टर’ उपन्यास में निर्मल वर्मा ने वृद्ध जीवन के आतंकित मन से वाकिब करवाया है | भय, आतंक के कारण ही ‘रात का रिपोर्टर’ के नायक रिशी स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है | जीवन का यह अकेलापन भय का कारण होता है | इसी मनोदशा को उजागर करते हुए भय का चित्रण किया  है- “वह लाइब्ररी की तरफ चलने लगा | कोई उसका पीछा नहीं कर रहा था, सिवाय उसके डर के, जो वह सज्जन व्यक्ति उसके पास छोड़ गये थे  | सैतीस साल की उम्र में उसने तहर-तरह के डर भोगे थे , लेकिन वे उसके भीतर थे, उसे टोहने के लिए उसी नंगी सड़क पर पीछे मुड़-मुड़ कर देखना नहीं पड़ता था | किन्तु यह एक नए किस्म का डर था |”13 वृद्धों के समक्ष सबसे बड़ी त्रासदी है- अकेले जीवन-यापन करना |

‘दौड़’ उपन्यास में ममता कालिया ने उपभोक्तावादी संस्कृति को दर्शया गया है | जिसमें  आज का युवा वर्ग पूरी तरह से ग्रसित होता चला जा रहा है जिसके चलते माँ-बाप को भी भूल बैठते हैं | यही कारण है कि आज मानवीय मूल्यों की क्षति होती जा रही है और व्यक्ति काल के गाल में धसता हुआ चला जा रहा है | ममता कालिया ने पवन, स्टेला और सघन के जरिये एक ओर जहाँ पारिवारिक संबंधों में आए विवशता को दर्शाया है तो वहीं दूसरी ओर एक ऐसे कटु सत्य के भी दर्शन कराए है जिसका परिणाम प्राय वे सभी परिवार भुगत रहे हैं जिनके बच्चे प्रवासियों के तरह हो गए हैं | जिनके लिए पराया देश और वहाँ की सुख सुविधा तथा नौकरी के झमेलों में फंसे हुए है | मिस्टर और मिसेज सोनी ऐसे ही दो मजबूर माता-पिता है | उनका बेटा सिद्धार्थ विदेश में जाकर बसा है | मिस्टर सोनी को अचानक दिल का दौरा पड़ता है और वे गुजर जाते हैं |
जब सिद्धार्थ को फ़र्ज़ की विधि के लिए बुलाया जाता है तो बहाने बनता है कि उसके घर तक आने में हफ्ते भर से अधिक समय लगेगा | अत: वह अपनी माँ को समझाते हुए कहता है- “हम सब तो आज लुट गए ममा | लोग बता रहें हैं मेरे आने तक डैडी को रखा नहीं जा सकता | आप ऐसा कीजिए. इस काम के लिए किसी को बेटा बनाकर दाह-सत्कार (क्रिया-कर्म) करवाइए | मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा |”14 यह है आज के युवा वर्ग की सोच एवं अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य-बोध जिसे देख सोचने पर विवश होना स्वाभाविक है |

भूमंडलीकरण के जंजाल में पड़ने वाले आदमियों में अधिकांश हर प्रकार की सामाजिक संबंधों को अनावश्यक और अनर्थ समझने वाले रिश्तें हैं | जो कि पश्चिम देशों के व्यापार ने लोगों के मन मस्तिष्क से उपज कर आया है | भूमंडलीकरण के पीछे यहाँ के युवा आँखें मूंदकर, तन-मन-धन देकर एवं अपनी संस्कृतियों को भूलकर यहाँ तक कि अपने माता-पिता की भी परवाह किये बिना  आज का युवा वर्ग ‘दौड़’ लगा रही है | 
‘हमारा शहर उस बरस’ उपन्यास में गीतांजलि श्री नें युवा पीड़ी के खोखलेपन को बखूबी उभारा है | दद्दू धड़ल्ले से युवा वर्ग की कमजोरियों पर कटाक्ष करते हैं | जब श्रुति दद्दू से समाज और संस्कृति के नाम पर गोष्ठी की बात करती है तो दद्दू निःसंकोच युवा वर्ग के खोखलेपन का उपहास करते हैं- “बंडल होगा.....पैसा बहेगा, दारू बहेगी, कागज पर लिखा जायेगा, धड़ाधड़ लेख छपेंगे, नाम होगा |”15 समकालीन युवा पीढ़ी आज पूरी तरह से बाज़ार में तब्दील होता प्रतीत हो रहा है |

 ‘समय सरगम’ उपन्यास में कृष्णा सोबती ने कामिनी और दयमंती जैसी स्त्रियों के माध्यम से यह दर्शाया है कि उसके पास सब होते हुए भी परिवार से दूर हो गयी है | दयमंती अकेली रहती है और अरण्या से अपने मनोभाव को व्यक्त करते हुए कहती है- “बच्चे साथ रह रहे हैं मेरा घर मेरा किचन चल रहा है |
खर्चा मैं कर रही हूँ और मैं अकेली पड़ी हूँ | बिना इजाज़त के मेरा सामान इधर से उधर करते रहते हैं | पीछे आश्रम गयी तो माधव को धमकाते रहते हैं | बताओं ममा लॉकर की चाभी कहाँ है.....कुछ कहो अरण्या | बच्चों की ऐसी हरकत से मेरा धीरज ख़त्म हो रह है |”16 निश्चित ही अकेलापन तब बोझ बन जाता है जब व्यक्ति अपनों से दूर रहता है | तभी निरंतर अजीबों-गरीब ख्यालात मन-मस्तिष्क पर हाबी होने लगता है | ईशान और अरण्या के माध्यम से लेखिका ने कुछ और वृद्ध जीवन की समस्याओं से मुखरित कराया है | अरण्या का यह जीवन उनके वृद्ध जीवन का भोगा हुआ यथार्थ है | वह कहती भी है- “परिवार की सांझी श्रीसम्पदा और सम्पन्नता में निहित है | आप इस साझेपन के हिस्सेदार हैं तो स्नेह, ममता भी प्रचुर होंगी|”17 

समकालीन दौर में बच्चे भी इस प्रवृति से बच नहीं पाए है | पहले एक समय ऐसा था जो आर्थिक तंगी के कारण लोग कमाने खाने के उद्देश्य से विदेश में जाकर बस जाते थे परन्तु आज का यह दौर कमाने-खाने के लिए अकेले ही जाते हैं और वृद्धों, पत्नी, और बच्चों को छोड़ जाते हैं |
वृद्ध को दर-दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं- “यूएनपीएफ के आकलन के मुताबित देश के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में कूल मिलकर 20 फीसदी बुजुर्ग अकेले या फिर अपने जीवन साथी के सहारे अपना जीवन काटने को विवश है | तमिलनाडु में यह स्थिति 50 फीसदी से अधिक आ चुकी है जबकि गोवा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल में यह दर काफी ज्यादा है |”18  
भारतीय कहावत है- पूत कपूत हो सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती अर्थात् पुत्र भले ही कुपात्र हो जाए पर माँ-बाप कभी कुपात्र नहीं होते | मुख्य तौर से देखा गया है कि आज के समय में वृद्ध की समस्या एक सामाजिक समस्या बन गई है | इसके समाधान के लिए परिवार, समाज और सरकार को साझेदारी से काम करने की आवश्यकता है | अत: वृद्धों को वृद्धाश्रम में रख देने मात्र से इसका निपटारा नहीं हो सकता |


संदर्भ ग्रन्थ सूची 

1 डॉ. सुखविंदर बाढ, पंजाबी लोक साहित्य, संस्कृत का आईना, पृष्ठ-82
2 डॉ. मधुकर पांडवी, कहानी निर्मल वर्मा और माधुरी का तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ-45
3 http://www.hindisamay.com 
4 डेमोग्राफी इंडिया, अंक-23, पृष्ठ-108 
5 चौधरी डी.पाल, ऐजिंग एंड द एजेण्ड, 1992,  नई दिल्ली, पृष्ठ-10 
6 प्रियदर्शन, संपादक, बड़े बुजुर्ग, पृष्ठ-30 
7 kavitakosh.org/kk/मैं_अकेला__सूर्यकांत_त्रिपाठी_ “निराला”
8 kavitakosh.org/kk/अब_वे_वासर_बीत_गए_(कविता)_“मैथिलीशरण गुप्त”
9  प्रियदर्शन, संपादक, बड़े बुजुर्ग, कहानी, पृष्ठ-34 
10 शशि भूषण शर्मा, एक बूढ़े की मौत, कहानी, पृष्ठ-57-58
11 डॉ. निमल वर्मा, लालटीन की छत, उपन्यास, पृष्ठ-35
12 चित्रा मुद्गल, गिलिगडु, उपन्यास, पृष्ठ-33
13 डॉ. निर्मल वर्मा, रात का रिपोर्टर, उपन्यास, पृष्ठ-58 
14 ममता कालिया, दौड़, उपन्यास, पृष्ठ-65
15 गीतांजलि श्री, हमारा शहर उस बरस, उपन्यास, पृष्ठ-145-146
16 कृष्णा सोबती, समय सरगम, उपन्यास, पृष्ठ-74 
17 वहीं, पृष्ठ-74 
18 हर्ष मंदर, बोझ नहीं जिम्मेदारी है बुजुर्ग, डॉ. कमलेश सिंह, दैनिक भास्कर, हिंदी समाचार       पत्र, पृष्ठ-4


लेखिका 
सीमा दास
संपर्क-7510211834
इमेल-seema9903617475@gmail.com
इमेल- seemadas.hindi@gmail.com

Comments

  1. ज़बरदस्त सीमा जी

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    1. प्रोत्साहन हेतु आपको तहे दिल से धन्यवाद🙏

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  3. बहुत खूब लिखी है आप

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  5. बहुत सुंदर लेखन

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