गिरमिटिया देशों में हिंदी साहित्य की दशा एवं दिशा और अभिमन्यु अनत का योगदान - सीमा दास

गिरमिटिया देशों में हिंदी साहित्य की दशा एवं दिशा और अभिमन्यु अनत का योगदान 


                                                                                             सीमा दास
दूरभाष संख्या-7510211834
ईमेल पता-seema.hindi@gmail.com 

१९वीं शताब्दी के पुवार्द्ध में भारत से अधिकांश मजदूरों को मजदूरी करने के लिए मॉरिशस लाया गया | उनमें ज्यादातर गरीब परिवार के लोग थे | गौरतलब बात यह है कि अनुबंध पर जाने वाले अनपढ़ लोग अपने को गिरमिटिया कहने लगे | इन गरीब मजदूरों के बीच उनकी लोक-संस्कृति रची-बसी थी, जिसका स्पष्ट स्वरूप को इस प्रकार जाना जा सकता है- जब वे धान काटते, रोपाई करते, दाना निकाल कर दौनी करते हुए इत्यादि | अर्थात् उन गरीब भारतीय मज़दूरों की लोक भाषा भोजपुरी हुआ करती, जबकि पढ़े-लिखे लोग बोलचाल की भाषा के रूप में खड़ीबोली हिदी का उपयोग करते |
“गिरमिटिया शब्द की उत्पत्ति ‘गिरमिट’ शब्द से मानी जाती है | यह शब्द अंग्रेजी के एग्रीमेंट (Agreement) शब्द का भोजपुरीकरण रूप है- एग्रीमेंट > ग्रीमेंट > गिरमेंट शब्द बना |”1 (सनाढ्य, तोताराम की कथा, गिरमिटिया के अनुभव, संपादक- ब्रज विलाश लाल, आशुतोष कुमार, योगेन्द्र यादे, राजकमल प्रकाशन, न्यू दिल्ली, २०१२, पृष्ठ संख्या-9 )  इस प्रकार से देखा जाय तो देश के बाहर हिंदी को पहुँचाने में गिरमिटिया मजदूरों की ही देन है | अत: गिरमिटिया देश के अंतर्गत फिजी, सूरीनाम, त्रिनिनाद, टोबागो इत्यादि देश मुख्य है | इसके अतिरिक्त गिरमिटिया देशों में से मॉरिशस भी एक है जहाँ हिंदी का अंतररराष्ट्रीय स्वरूप को देखा जा सकता है | मॉरिशसवासी भारतवंशी अभिमन्यु अनत के शब्दों में- ‘‘मॉरिशस की हिंदी अपनी माटी की सौंधी खुसबू की गंध को आत्मसात करके ही अपना एक निजी स्थान बना सकी है और हिंदी के शब्द सरोवर में अपने हिस्से की चंद बूँदें जोर पाई है |”2 
अत: देश के बाहर या यूँ कहे भारतेत्तर देशों में हिदी का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप को को विस्तार प्रदान करने में प्रवासी साहित्यकारों ने सेतु का काम किया है | इस प्रकार, गिरमिटिया देशों में हिंदी की दशा एवं दिशा को जानने के लिए निम्नबिन्दुओं पर विचार करना अति आवश्यक है, जो इस प्रकार से हैं-

जनसंख्या के आधार पर –
मॉरिशस कई भाषाओँ और धर्मों का देश है | वर्तमान समय में मॉरिशस की कुल आवादी के अनुसार ६६% भारतवंशी वहाँ निवाश करते हैं, जबकि ३०% अफ़्रीकी वंशी है | चूँकि देखा गया है कि सन् १८३४ ईसवी में भारत से मजदूरों को गिरमिटिया बनाकर ‘शर्तबंधी प्रथा’ के अंतर्गत ५ साल का एग्रीमेंट करवा कर उन गरीब मजदूरों को सोने का सुनहरा सपना दिखाकर सात समुंदर पार ले जाया गया |
“मॉरिशस में १८३४ ई. से १९२० ई. के मध्य ७५००० भारतीय गिरमिटिया का उत्प्रवास करवाया गया |”3 यही कारण है कि मॉरिशस में उत्तर एवं दक्षिण भारत से ले जाए गए लोगों की जनसंख्या में बढ़ोतरी पाया गया | मूल रूप से १२ मार्च १९६८ ईसवी को मॉरिशस में धोखे से जा बसे भारतीय मजदूरों को इस गिरमिटिया जीवन से मुक्ति मिली | जिसके परिणामस्वरूप उन गरीब, पीड़ित, शोषित मजदूरों को मॉरिशसवासिय गोरे सरकारों की औपनिवेशिक नीति एवं अधीनतापूर्वक दास्ता से पूर्णत: आजादी मिली |

भाषा के आधार पर-
“सभी प्रवासी भारतीय विदेश में अपनी भाषा की रक्षा, संरक्षा, एवं भषा के प्रति सचेष्ट है, यही कारण है कि सर्वत्र विदेश में जहाँ- जहाँ भारतीय, प्रवासी या अप्रवासी के रूप में गए हैं वे हिंदी बोलने का प्रयत्न करते है और अपनी भाषा एवं संस्कृति पर उन्हें गर्व है |
वे अपनी अगली पीढ़ी को हिंदी सिखाना चाहते हैं | क्योंकि वही हिंदी उन्हें विदेश में जोड़ने वाली ताकत है |”4 वास्तव में कहा जा सकता है कि प्रवास में निवास कर रहे भारतवंशी अंग्रेजी नीति के शिकार होने के साथ ही साथ उनकी औपनिवेशिक नीतियों के दंश को भी झेल रहे थे | वे गरीब भारतवंशी शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित, एवं अपमानित होते हुए भी अपनी संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों को बचाए रखने में सफल रहे साथ ही अपनी भाषागत एकता की मूल्यों को भी बनाए रखने में सार्थक सिद्ध हुए है |
गिरमिटिया मजदूरों के इतिहास के माध्यम से यह स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है कि वहाँ निवास कर रहे भारतवंशी को विभिन्न प्रकार के मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया | यहाँ तक कि भोजपुरिया समाज खुल कर अपनी भाषा में वार्तालाप भी नहीं कर सकते थे | इस संदर्भ में मॉरिशस के सर्वश्रेष्ठ एवं लोकप्रिय रचनाकार अभिमन्यु अनत ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रसिद्ध रचना ‘लाल पसीना’ में लिखा है- ‘‘जिस दिन गोरे सरदारों की ड्यूटी की बदली की जाती उस दिन सारे भारतीय मजदूर खुलकर बातें कर पाते |”5 

वस्तुतः वर्तमान समय में स्थिति यह है कि मॉरिशस क्रियोली और भोजपुरी को छोड़कर वहाँ सभी भाषाएँ पढ़ने लिखने के लिए ही सीखी जाती है | जबकि फिजी में गिरमिटिया हिंदी के नव विकसित भाषा के रूप में फिजी
बात, सूरीनाम में सरनामी, दक्षिण अफ्रीका में नेताली हिंदी कहलाए | इनकी संरचना का मूल मुख्य रूप से अवधि, भोजपुरी और  खड़ीबोली था जिसमें नए देश की भाषा सत्ता भाषा के शब्द वहाँ की जनभाषा में घुल-मिल गए | श्री जितेन्द्र कुमार मित्तल ने अपनी पुस्तक ‘मॉरिशस देश और निवासी’ में लिखा है ‘‘भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व मॉरिशस में स्थिति यह थी कि भारतीय मूल के सभी मॉरिशसवासियों की साहित्य की भाषा खड़ीबोली हिंदी थी, किन्तु भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वहाँ से आने वालों में प्रांतीयता की भावना और भाषा का उन्माद स्वरूप उत्पन्न हुआ है | फलस्वरूप अब हिंदी के बल हिंदी भाषी राज्यों से आये हुए लोगों तक सिमटती जा रही है |”6 

अपनी भाषा हिंदी के प्रति निष्ठा को बचाए हुए है | हिंदी के प्रति उत्कृष्ट लालसा को दर्शाते हुए माँरिशस के कवि मुनीश्वर लाल चिंतामणि के शब्दों में-
“उस आदमी से जाकर कहो कि 
मेरी हिंदी भाषा 
एक ऐसी खूबसूरत चीज है 
जिसनें मेरी संस्कृति को 
अब भी बचाए रखा है..|”7 

प्रवासी भारतीयों के समक्ष ‘गिरमिट काल’ में हिंदी का स्वरूप जो बना वह उनकी अपनी बोलियों एवं भाषाओँ का समिश्रित रूप था जिसमें स्थानीय भाषों के शब्द थे | इन मिश्रित रूपों में फिजी में  अवधी, कयिबिती, और अंग्रेजी भाषा का तथा सूरीनाम में अवधी, नेताली में भोजपुरी के साथ अफ्रीकांस का मिश्रण हुआ और नए हिंदी भाषा का उदय हुआ जो फिजी बात, सरनामी नेताली आदि नामों से इन देशों को जाना जाने लगा | 

वर्षों पूर्व भारत से गए गिरमिटिया मजदूर भारत दूर रहकर भी अपनी भाषा एवं संस्कृति की लड़ाई अनवरत लड़ता रहा | साथ अपने पूर्वजों के द्वारा बनाई गई अस्मिता को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | यदि हम मॉरिशस की बात करें तो अभिमन्यु अनत का नाम सर्वप्रथम बड़े ही आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है जिन्होंने अपने साहित्य में भारतीय प्रवासी मजदूरों की पीड़ा एवं उनके संघर्ष का बखान खुलकर किया है | इनके साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है- साहित्य में निहित भाषा कीकलात्मक पकड़, जिसमें सामान्य से सामान्य एवं सहज से सहज खड़ीबोली हिंदी तथा भोजपुरी भाषा का प्रयोग किया गया है | जिसके संबंध में श्रवणकुमार लिखते हैं- “अभिमन्यु अनत की भाषा ‘अपनी’ है | मैं चाहता हूँ इसका सही विकास हो | अभिमन्यु में सामर्थ्य है इसलिए आशा करता हूँ कि कलात्मक दृष्टि से भी उसमें और निखर आएगा |”8 वास्तव में देखा जाए तो अभिमन्यु अनत के साहित्य में भाषा के प्रति जागरूकता एवं प्रवासियों के प्रति निरंतन चिंतन की भावना जरी है | सदैव ही वे प्रवासियों की पीड़ा का बखान अपने साहित्य में उकेरा है |

बोलचाल के आधार पर-
एक शतक से लेकर आज तक यह देखा जा सकता है कि किस तरह भोजपुरिया समाज आज भी बोलचाल की भाषा के रूप में हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी, मगही, एवं मैथिली आदि विभिन्न बोलियों को बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयोग में ला रहे हैं | भोजपुरिया समाज बड़े ही गर्व से कहा करते- “हम भोजपुरी जानी ला, बोली ला, बूझी ला, त अंग्रेजी में काहे के गिटर-पिटर करी |”9 इस प्रकार देखा जा सकता है कि विदेशों में हिंदी का विस्तार स्वरूप केवल भाषाई आधार पर ही नहीं विकसित हो रहा है बल्कि बोलचाल के साथ साथ पढ़ने-लिखने के लिए भी आधार का माध्यम है- हिंदी |

धर्म के आधार पर-
भारतवंशी को जब गिरमिटिया बनाकर विदेशों में ले जाया गया तब वे अपने साथ गीता, रामायण, महाभारत, हनुमान चालीसा, बाइबिल, आदि को अपने साथ ले गए | साथ ही वहाँ वे भारतवंशी अपने धर्म का स्वालंबन भी निष्ठापूर्वक किये | ऐसा देखा गया कि गोरे मालिक अपने काले सरदारों के माध्यम से प्रवासी भारतीय मजदूरों में वर्ण, जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर भेद-भाव पैदा करने का पूरा प्रयास किया करते, ताकि मजदूरों में एकता कायम न हो सके | परन्तु उनके लाख शोषणों के एवं प्रताड़नाओं के बावजूद भी वे भारतीय मज़दूर पूजा-पाठ करते एवं जो थोड़ा बहुत पढ़े लिखे थे, वे रामायण या चालीसा का पाठ जोर-जोर से करते, जिससे की वे भारतीय मजदूर अपनी दिन-भर की थकान को आसानी से मिटा सके साथ ही अपनी धार्मिक मान्यताओं को भी कायम रख सकें |

संस्कृति के आधार पर-
वहाँ ‘बैठका’ हुआ करती जिसमें व्यक्ति अपनी बातों को सबके बीच रख सके | इस दौरान जो भी बाते होती हिंदी में तथा भोजपुरी में ही हुआ करती | भारतवंशियों का अपना एक अलग ही समाज था और आज भी है जिसके
आधार पर वे एकता और बड़े सम्मान के साथ विभिन्न पर्व एवं त्यौहार का आयोजन करते आ रहे हैं | सन् १९६२ के पहले का समय था जब वे एकजुट होते तब लोकगीतों के मध्यम से अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति को मुखरित स्वर प्रदान करते | इसके लिए शाम को ‘बैठका’ पर सभी शामिल हुआ करते | इस ‘बैठका प्रथा’ की चर्चाएँ अभिमन्यु अनत कृत ‘चौथा-प्राणी’ में देखा जा सकता है- “बैठका में धर्म की चर्चाएँ, रामायण-पाठ एवं हिंदी-शिक्षण जैसे महत्वपूर्ण कार्य भी होते रहें हैं | अत: गाँव में शिक्षा का माध्यम ‘बैठका’ ही था | जिसके मध्यम से अनपढ़ लोग भोजपुरी में बात करते जबकि पढ़े-लिखे लोग खड़ीबोली हिंदी में वार्तालाप करते | हिंदी का गोरों के शासन-काल में मजदूर बालकों की शिक्षा ‘बैठका’ में ही संभव हो गयी थी|”10 इस प्रकार कहीं - न –कहीं हिंदी का प्रचार उस गिरमिटिया समय की ही देन है |

लोकगीत के आधार पर-
सन् १९४७ में भारत की स्वाधीनता के बाद मॉरिशस का भारतीय समाज जागृत, उन्मुक्त एवं चैतन्य हुआ | साथ ही भाषा एवं संस्कृति के प्रति लोगों का उमंग एवं उत्साह का प्रखर रूप देखा गया | लोकगीत के रूप में गाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के लोकगीत जैसे विरह-गीत, बारह- मासा गीत, ऋतु-गीत, पर्व-त्यौहार पर गाये जाने वाले गीत आदि| विरह गीत की बोल इस प्रकार से हैं-
“हमरा से दिलवा तोर के विदेशवा गईल ये राजा जी,
विदेशवा गईल ये राजाजी, निर्मोहिया भईल ये राजाजी ||”11 

रचनाकार के आधार पर-
प्रवासी देशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार बड़ी तीव्र गति से देखा जा सकता है | इसके पीछे मुख्य योगदान मुख्य रूप से प्रवासी देशों में अर्थात् विदेशों में हिंदी भाषा में रचना कर रहे रचनाकारों की | उनमें से मुख्य है- दीपचंद
बिहारी, रामदेव धुरंधर, वेणी माधव, रामखेलावन, भानुमती राजदान, पुजानंद नेमा, केशवदत्त चिंतामणि और राज हीरामन इत्यादि | साथ ही मॉरिशस के लोकप्रिय रचनाकार अभिमन्यु अनत जिन्होंने अपनी मातृभाषा के प्रलोभन को त्याग कर बड़ी निष्ठा और धैर्य के साथ एक लम्बी शती से हिंदी में रचना कर रहे हैं | साथ ही साथ हिंदी को विस्तार स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान भी कर रहे हैं | सोमदत्त बखोरी के शब्दों में- 
“भाषा की लडाई में
    ऊँचा किया नाम अपना
      और अपने देश का
          ऊँचा किया नाम अपने पूर्वजों का
         और उनके देश का |”12 

रचना के आधार पर-
हिंदी भारत की राजकीय भाषा होने के साथ ही साथ देश दुनिया की सबसे लोकप्रिय एवं चर्चित भाषा है जिसे बड़ी आबादी में लोग लिख, पढ़ एवं बोल सकते हैं | देवनागरी में लिखी जा रही यह सरल एवं मानक भाषा है | यह कहने की कतई आवश्यकता नहीं है कि भाषा के प्रचार के पीछे लेखकों की सक्रियता एवं पाठकों की पठनीयता के प्रति रूचि आदि की विशेष रूप से महत्वपूर्ण रोल है |
आज वैश्वीकारण के इस दौर में वहाँ निवास कर रहे भारतवंशी रचनाकार अपनी रचनाओं में अपने पूर्वजों की पीड़ा को रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य में दर्शाया है | तथा अपनी लेखनी का माध्यम भी हिंदी भाषा को ही बनाया है | कृष्ण लाल बिहारी के शब्दों में- ‘‘मैंने अपनी पुस्तक ‘पहला कदम’ हिन्दू में जाति को जीवित रखने और हिंदी भाषा की धारा बहाने के उद्देश्य से बनायी है | इसमें मैंने एक प्रेम दृश्य खीचा है, जो साहित्य रूपी गुण से सिचा है |’’13 

पत्र-पत्रिकाओं के आधार पर-
मॉरिशस के इतिहास को झांक कर देखेंगे तो पायेंगे कि डॉक्टर मणिलाल द्वारा सन् १९१४ ईसवी में प्रकाशित ‘हिंदुस्तानी’ समाचार पत्र ही था, जिसने मॉरिशस के हिंदी साहित्य रूपी वटवृक्ष के लिए बीज का काम किया | इसके बाद ‘मॉरिशस इंडियन टाइम्स’ (१९२०-२४), ‘सनातन धर्मार्क’ (१९३३-४२), ‘जनता’ (१९४८), ‘ज़माना’ (१९४८), में प्रारम्भ हुआ फिर कुछ समय के बाद बंद हो गया ), ‘वर्तमान’ (१९५३-५४), ‘अनुराग’ (१९६०), ‘दर्पण’ (१९७०), ‘प्रभात’ (१९८०), ‘स्वदेश’ (१९८६), इत्यादि अल्पजीवी पत्रिकाओं ने प्रवासी हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार में विशेष रूप से योगदान दिया |

निष्कर्ष-
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयना, त्रिनिडाड, और टोबैगो आदि विभिन्न प्रवासी देशों में भारतीय मूल के लोगों ने जो सघर्ष किया और बाद में मॉरिशस में या यूँ कहा जाय कि विदेशों में अपनी प्रतिभाओं के झंडे गाड़ें | साथ ही जैसा भी बन पड़ा, उन्होंने हिंदी की मशाल को वहां जलाए रखा है |
चाहे भाषा के आधार पर हो या बोलचाल के आधार पर या धर्म एवं संस्कृति के आधार पर ही क्यों न हो | इन सबमें अपनी हिंदी भाषा की अस्मिता को बनाये रखने में भारतवंशी मुख्य रूप से सफल हुए है | साथ ही साथ नई परम्पराओं से गुणवान प्रवृतियों को प्रकाश में लाने का काम किया है | साथ ही अपने सफल प्रयास से भारतवंशियों ने इस देश को समृद्ध किया है | भाषा की दृष्टि से इस बात पर भी ध्यान दिया गया कि भारतीय मूल के अधिकांश लोग अपनी मातृभाषा बोल पाने में अग्रसर हुए है | साथ ही हिंदी भाषी के लिए विदेशों में भी हिंदी भाषा उनके सम्प्रेषण का माध्यम ही नहीं अपितु अस्मिता का प्रतीक बन गयी है साथ ही अपसंस्कृति के विरुद्ध लड़ने का हथियार भी है |
वस्तुतः आज भी हम भाषा की इस लड़ाई में हिंदी को किसी अन्य भाषा के साथ तुलना करने की बजाय हिंदी के अस्तित्व को सामने लाने का प्रयास करना चाहिए | साथ ही मूल रूप से, अंग्रेजी की प्रभुत्ता से मुक्त होने के लिए, भाषाई अस्मिता को ठेस न पहुँचाते हुए सामंजस्य के साथ-साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है या यूँ कहें कि हमने इतने सशक्त प्रयास ही नहीं किये हैं, जो भाषा के इस लड़ाई में हमारी हिंदी के साथ न्याय कर सके | अपने देश में ही हम ‘राजभाषा’, ‘संपर्क भाषा’ जैसी संकीर्णता से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं | चूँकि, प्रवासी साहित्यकारों के रचनाओं के माध्यम से जाना जा सकता है कि देश के बाहर भी हिंदी का अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप को जाना जा सकता है एवं उनके सतत प्रयास के परिणामस्वरूप ही विदेशों में हिंदी के विस्तार स्वरूप की महता मिल पाई है | अत: हिंदी को विकसित रूप प्रदान कर पाने में इन प्रवासी साहित्यकारों का सफल योगदान रहा है | अत: हम भारतवंशी को हिंदी के प्रति जागरूकता लाने की आवश्यकता है | साथ ही पूरी दृढ़ता के साथ विदेशी पटल पर अपनी बात को रखते हुए हमें अपनी भाषा ‘हिंदी’ के स्वरूप को प्रकाश में लाना चाहिए, जिससे हिंदी केवल हिंदी प्रदेशों की भाषा बन कर न रह जाए बल्कि हिंदीतर एवं विदेशों की भाषा बन सकें |



सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-

1-सनाढ्य, तोताराम की कथा, गिरमिटिया के अनुभव, संपादक- ब्रज विलाश लाल, आशुतोष  कुमार, योगेन्द्र यादे, राजकमल प्रकाशन, न्यू दिल्ली, २०१२, पृष्ठ संख्या-9 )
2- श्री चित्रा वी. एस, उपन्यासकार अभिमन्यु अनत, पृष्ठ संख्या- ४९
3-अरुणाचलम कृष्णन, इंडियन एंड आइडियल लेबर आर स्लेव, पेंटागन प्रेस, न्यू दिल्ली, पृष्ठ संख्या-३१
4-विमलेश कांति वर्मा, गगनांचल, वर्ष-40, अंक-1-2, जनवरी- अप्रैल, २०१७  पृष्ठ संख्या-7 
5-अभिमयु अनत, ‘लाल-पसीना’, पृष्ठ संख्या- १२५
6- श्री जितेन्द्र कुमार मित्तल, ‘मॉरिशस देश और निवासी’, पृष्ठ संख्या-   ६७
7-मुनीश्वर लाल चिंतामणि, मेरी हिंदी, गगनांचल,वर्ष-40,अंक-1-2, जनवरी अप्रैल, २०१७ पृष्ठ संख्या-7
8-डॉ.मुनीश्वरलाल चिंतामणि, मॉरिशसीय हिंदी साहित्य(एक परिचय, पृष्ठ संख्या-56 
9-स्मारिका पत्रिका , १०वाँ विश्व हिंदी सम्मलेन , पृष्ठ संख्या- ३२१
10-श्री चित्रा वी. एस, उपन्यासकार अभिमन्यु अनत, पृष्ठ संख्या- १४३
11-जोगिन्द्र सिंह कवल,  ‘सात समुंद्र पार’ (उपन्यास), पृष्ठ संख्या- ८७
12-http://hi.m.wikibooks.org
13-कृष्ण लाल बिहारी,  ‘पहला कदम’, पृष्ठ संख्या-78 








लेखिका 
सीमा दास
सम्पर्क-7510211834
इमेल-seema9903617475@gmail.com
इमेल-seemadas.hindi@gmail.com

Comments

  1. बेहतरीन प्रस्तुति😊👌.
    मुझे गिरमिटिया लोगो और उनके परिवार से मिलने का मौका नीदरलैंड में मिला था।

    मौक़ा था "प्रवासी भारतीय" संगोष्ठी का।

    ReplyDelete
    Replies
    1. अत्यंत प्रशंसा हो रही है,,,आपके अनुभव एवं सतत प्रयास एक नई एवं बहुमूल्य योग्यकारी आयाम है विमर्श हेतु, आपकी सक्रियता सबके लिए नया मार्गदर्शक के रूप में कार्य करेगी...आपका बहुत -बहुत शुक्रिया सर🙏🙏

      Delete
  2. शानदार !बेहद उम्दा जानकारी मिली

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

साहित्य में चित्रित वृद्धों के प्रवासी जीवन की त्रासदी - सीमा दास

"तुम किसी काम की नहीं"